काशी में सूनी संगीत की महफिलें, सुर-ताल रूठे

कोरोना राग के आगे सारे राग फीके, सितार, तबला और हारमोनियम खामोश

शोर से गुलजार रहने वाला नगर अब मुंह पर मास्क लगा बैठा है
संगीत की लय-ताल के बदले लोग कर रहे हैं घरों में कदमताल
संगीत के खजाने से लबरेज संगीतज्ञ पेट की भूख से लरज रहे


विजय विनीत


वाराणसी। कोरोना ने बनारस के रस को ही मिटा दिया है। चाहे संगीत हो या मौजमस्ती। लाकडाउन में न सुर है...न ताल है। कोरोना है ही ऐसा। मोगांबो से भी खतरनाक। रक्तबीज की तरह। इसकी हंसी में भी वायरस है। जो हंसा सो फंसा... या फिर जो खांसा वो फंसा। इसलिए कोरोना का संकट संगीत पर ज्यादा है।
बनारस की कला, संस्कृति, मौजमस्ती, रहन-सहन, धार्मिक आस्था और सात बार नौ त्योहार मनाने की रवायत के बीच बनारसी संगीत की कायल समूची दुनिया रही है। लाकडाउन ने संगीत को ऐसी चोट दी कि उसकी ठसक ही टूट गई। नतीजा-शहनाई, सारंग, सारंगी, तबला, बीन, सितार, बांसुरी, हारमोनियम, बुलबुल तरंग, इसराज, कौमुकी वीणा, सुरसिंगार, काष्टतरंग, शंखतरंग के सुर पूरी तरह थम गए। वो सुर जिसे बजाने और गाने वाले वाले साधकों ने बनारसी संगीत का रस समूची दुनिया में घोला था। दुनिया जानती है कि बनारस में सरोद, पियानो, वायलीन, बायोला, चेल्लो, बैंजो और हारमोनियम सरीखे साज बाहर से आए, लेकिन इन साजों को बनारस के संगीतज्ञों ने असली सुर दिया। गंगा पुजैया और नौबतखाने में बजते-बजते उस्ताद विस्मिल्लाह खां ने बनारस की शहनाई दुनिया भर में पहुंचा दी। तबला, पखावज, ढोल, मृदंग, मजीरा, खझड़ी को भी पहचान तभी मिली जब इस शहर के साधकों ने अपना सुर दिया।



बनारस के जाने-माने पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं,‘सुर-संगीत को भूल जाइए। अपने बनारस में विदेश छोड़िए, दिल्ली-मुंबई से आने वालों को सूंघा जा रहा है। हाथ मिलाने की जगह नमस्ते या फिर आदाब कहकर काम चलाया जा रहा है। कहीं-कहीं सिर्फ जूते भिड़ाए जा रहे हैं। अमीरों ने अपने कुत्तों और बिल्लियों तक को मास्क पहना दिए हैं। मास्क चढ़ाए लोगों को देखने से भी पता नहीं चल पा रहा है कि कौन रक्तबीज राक्षस को लिए घूम रहा है।’
प्रदीप बात जारी रखते हैं। कहते हैं कि कोरोना ने बनारस के रस को चूसकर रख दिया है। निचुड़े हुए आम की तरह। सच को स्वीकारना पड़ेगा। बनारस घराने के संगीतकार रियाज कर रहे हैं, मगर वो संगीत किस काम का। जिस संगीत पर, संगीत सुर-ताल और लय पर लोग न झूमें वो सुर में रहते हुए भी बेसुरा है। बनारस के संगीतज्ञ घर में बैठे हुए सिर्फ रियाज कर रहे हैं। खुद को माज रहे हैं। मगर असली परीक्षक तो श्रोता होता है। देख लीजिए। कोरोना का कितना खतरनाक है साया। संकटमोचन संगीत समारोह को ले डूबा। दुर्गा मंदिर का संगीत समारोह भी नहीं हुआ। गुलाबबाड़ी और मूर्ख दिवस भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। संगीत के ये वो कार्यक्रम थे जिसे देखने-सुनने के लिए समूची दुनिया बनारस आती थी।



संगीत के ये ऐसे मंच थे जिस पर संगीतज्ञ बैठते थे तो लोकधुनों को क्लासिकल शैली में अपनाकर बेमिसाल मजेदारी से उनको सजा दिया करते थे। चाहे चैती हो या कजरी या फिर होली गीत। वैवाहिक अवसर पर आयोजित होने वाले गीत-गवनई भी थम गई। अपने बनारस में तो समधी को सुनाए जाने वाले गालियों के गीत और सेहरा भी क्लासिकल संगीत से संजोए जाते रहे हैं। ये वो शहर है जहां के कलाकारों ने बंगाल से बगदाद तक के संगीत को सींचा और संरक्षित किया। बंगाल का बाउल और भटियाली के साथ चंडिदास व विद्यापति के पद, पंजाब का टप्पा, मराठी का अभंग गायन और कर्नाटक संगीत की कृतियां सभी को बनारस के कलाकारों ने परखा और अपने रियाज से निखारा। बनारस के संगीत नायक छोटे रामदास और उनकी गुरु परंपरा में प्राचीन ईरानी गायकी आज भी सुरक्षित है।
खयाल गायिकी के पुरोधा राजन-साजन कहते हैं,‘लाकडाउन में बचा ही क्या है। संगीत तो भूल जाइए। संगीत तब अच्छा लगता है जब पेट भरा होता है। संगीत सुनने वालों की छोड़िए। साज बजाने वालों से पूछिए। इनके सामने बड़ा संकट है। सरकार ने इन्हें पूछा तक नहीं कि उनके पास पेट भरने के लिए कुछ है भी या नहीं? संगीतकारों में साजिंदे सबसे ज्यादा दिक्कत में हैं। लाकडाउन में भूख और रोजगार बड़ा सवाल है। इस सवाल को तत्काल हल करने की जरुरत है।’



बनारस के वरिष्ठ पत्रकार राज कुमार सिंह कहते हैं, ‘लाकडाउन तो अब हुआ है। बनारस में झूमरी गाने और नाचने की जो परंपरा थी, वो कब की लुप्त हो चुकी है। क्या इसे किसी ने बचाया? इस शहर में पहले झूला, हिंडोला, पालना गाने की परंपरा थी। धमार, दादरा, सादरा, केमटा, कहरवा गाने की परंपरा सिमटती जा रही है। सिर्फ टप्पा ही नहीं, ठुमरी भी बनारस में ही ठुकती आई है। लाकडाउन में इसका ठुमकना भी बंद हो गया है।’
बहुत कम लोग जानते हैं कि बनारस में कोठेवालियों ने संत कबीर को बड़ी पहचान दिलाई। इनकी बंदिशों को दुनिया भर में गाया। बनारस की भैरवी और चैती की दीवानी सुविख्यात गायिका केसरवाई केरकर भी थीं। ये दोनों बंदिशें संगीत नायक पंडित छोटेराम दासजी ने रची थी। समूचा बनारस सालों से देश के तमाम संत-महात्माओं के पदों को ध्रुपद, धमार और खयाल के रूप में गता रहा है। टप्पा गायिकी के प्रवर्तक के रूप में शेरी मिया का नाम जाना जाता है। गायिकी की जो चमक पहले थी, वो फीकी पड़ गई है।
लाकडाउन का हाल तो दुनिया के मशहूर सरोदवादक पंडित विकास महाराज से पूछिए। हालात ने इन्हें बुरी तरह तोड़ दिया है। वो कहते हैं, ‘चार मई को उन्हें तीन महीने के लिए जर्मनी, आस्ट्रेलिया और फ्रांस के दौरे पर जाना था। उनके ढेर सारे कार्यक्रम पहले से ही तय थे। सारे कार्यक्रम रद हो गए हैं। आने वाला डेढ़ साल आखिर कैसे बीतेगा? बड़े कलाकार तो सरकार से भीख भी नहीं मांग सकते। आकाशवाणी, दूरदर्शन सब बंद पड़े हैं।’



पंडित विकास कहते हैं,‘योगी सरकार से ज्यादा संवेदनशील थी अखिलेश सरकार। पद्म अलंकरण और यश भारती से सम्मानित लोगों को पचास हजार मासिक मानदेय दे रही थी। योगी ने उसे भी बंद करा दिया। विकास महाराज के पुत्र पंडित प्रभास महाराज तबले के बड़े महारथी हैं। इनदिनों वो कैलिफोर्निया, न्यूयार्क और हवाई के कुछ युवाओं को लाइव क्लास दे रहे हैं। बाकी समय में सितारवादक भाई अभिषेक के साथ रियाज कर रहे हैं।’ रामापुरा घराने के विख्यात वायलिन वादक पंडित सुखदेव मिश्र भी लाकडाउन के दर्द से आहत हैं। वो कहते हैं, ‘हमारे पूर्वजों को देखिए। उनके सामने ऐसी फांकाकसी की नौबत कभी नहीं आई। बनारस के पियरी घराने के भाई प्रसिद्धु-मनोहरजी की जोड़ी की चमक आज तक फीकी नहीं पड़ी है।’ ये कंपनी काल के ध्रुपद गायक थे।



बनारस आए तो शिवदासजी प्रयागजी को पहचान मिली। काशीराज ईश्वरी नारायण की रियासत के नाजिर बनाए गए। प्रयागजी मिश्र गायक तो थे ही, सितार के भी धुरंधर वादक थे। दुनिया का कौन संगीतकार नहीं होगा जो तबलावादक दरगाही जी को नहीं जानता? मौलवीराम और मुंसीराम कथक के चौधरी थे। रामवख्श मिश्र सारंगी के गुणी वादक थे। सारंगी की परंपरा का आगे बढ़ाया जयनाथी और बैजनाथी मिश्र ने। इस परंपरा को सींचा सरयू प्रसाद मिश्र ने। गवैयों में पंडित विश्वनाथ मिश्र का सुरीला अंदाज जो सुनता है वो कायल हो जाता है। माताबख्श मिश्र, बेचू मिश्र, बैजू मिश्र, गणेशी मिश्र, द्वारिका प्रसाद मिश्र, यदुनंदन रघुंदन मिश्र, पंडित रामसहाय, भैरव सहाय, बलदेव सहाय के अलावा कंठे महाराज के तबले की रसिया थी समूची काशी।



दिग्गज साधकों में पंडित अनोखे लाल मिश्र और गायनाचार्य बड़े रामदास ने भी खूब यश हासिल किया। उस्ताद विस्मिल्लाह खां बेजोड़ शहनाई वादक थे। पंडित रविशंकर भी बनारसी थे। किसी ने इतने बुरे दिन नहीं देखे।
लाकडाउन में तबला बादक अशोक मिश्र और इनके दोनों पुत्र-जय और श्री पांडेय गरीबों को अनाज-भोजन बांटते नजर आ रहे हैं। अशोक उस कड़ी के तबला वादक हैं जिसकी परंपरा पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित किशन महाराज और पंडित गुदई महाराज ने डाली थी।



अशोक पांडेय कहते हैं,‘कोरोना को कोसने का नहीं, उससे लड़ने का वक्त है। यह लड़ाई तभी जीती जा सकती है जब अपने घरों में रहें और किसी का पेट भूख से न कुलबुलाता रहे।’ उन्होंने लच्छू महाराज, काशीनाथ खंडेकर, सितारा देवी, गोपीकृष्ण के अलावा अपने पिता सूरज प्रसाद पांडेय से सिर्फ संगीत ही नहीं सीखा। मुश्किल समय में चुनौतियों का मुकाबला करने का गुर भी इनसे सीखा था। कोरोना के संकट के समय बनारस के लोग अब फासले से मिलें। नमस्ते और अदाब करें। जिनके पास भोजन नहीं, उन्हें बांटें। इस आदर्श को जीवन में अब हमेशा के लिए उतारें।


संगीत घरानों की टूट गई रवायत


वाराणसी। लाकडाउन ने नहीं, बनारसी की नई पीढ़ी ने उन घरानों को भुला दिया है जिनकी शोहरत समूची दुनिया में थी। सोलहवीं सदी से लेकर पांच दशक पहले तक इन घरानों से संगीत की धारा बहती थी। ऐसी धारा जो संगीत साधकों के व्यक्तित्व की प्रदर्शित करती थी। ये घराने किसी कला साधक को भूखे नहीं रहने देते थे। चाहे वो कलाकार हो या फिर संगतकार।
बनारस का कबीरचौरा और पियरी ही नहीं, तेलियाबाग में भी संगीत की महफिल सजा करती थी। वही तेलियाबाग जहां संस्कृत विश्वविद्यालय है। रामपुरा, चाहममामा और शिवाला के अलावा रामनगर में भी संगीत का बड़ा घराना था। जहांं संगीत की महफिल सजती थी, वहांं अब सन्नाटा हैैै। अंंधेरा हैै और कोरोना की परछाई है।  तब संगीत के अनगिनत महारथी पैदा हुए। पुराने संगीत विधाओं के गुणीजनों की सूची बनाई जाए तो उसे समेट पाना कठिन हो जाएगा। पुराने जमाने में संगीतज्ञ अपने शिष्यों को आगे बढ़ाने के लिए उनके खान-पान और भोजन तक का इंतजाम कराते थे। लाकडाउन के दौर में संगीत विधाओं के कुछ ही गुणी गरीबों की मदद में आगे आ रहे हैं। पंडित विकास महाराज और अशोक पांडेय वगैरह को छोड़ दें तो कोई अपने संगतकारों तक का हाल जानने की कोशिश नहीं कर रहा है।



टूट गई बनारसी कव्वालों की कमर
लाकडाउन में दाने-दाने को मोहताज हो गए हैं ये कलाकार


वाराणसी। लाकडाउन ने बनारसी कव्वालों की कमर तोड़कर रख दी है। गली-मुहल्लों में आयोजित कार्यक्रम में कव्वाली कर अपना दिन गुजारने वाले इन कलाकारों के सारे कार्यक्रम बंद है। आय का दूसरा कोई जरिया नहीं है। इनके सामने जीवन और जीविका का सवाल खड़ा हो गया है। कइयों को खाने के लाले पड़ गए हैं। बनारस में कव्वाली व सूफी संगीत गाने-बजाने वाले कलाकारों की तादाद सवा सौ से भी ज्यादा है।
मंडुआडीह की रुखसाना हो ही लें। वो कई बार इजराइल और अन्य देशों में अपनी कौव्वाली से विदेशियों का दिल जीत चुकी हैं। अब बुरे दौर से गुजर रही हैं। रुखसाना कहती हैं,‘अगले दो-तीन माह तक कोई कार्यक्रम होने की संभावना भी नहीं है। आय पूरी तरह से बंद है। घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है। परिवार में बीमार लोगों को इलाज नहीं हो पा रहा है। अगर यही स्थिति बनी रही, तो उन लोगों के पास मरने के सिवा और कोई भी विकल्प नहीं बचेगा।’


रुखसाना बताती हैं,‘कव्वाली के कार्यक्रम में सात से आठ कलाकारों की टीम होती है। इसमें हारमोनियम वादक, सामूहिक गान (कोरस) के लिए दो कलाकार, बैंजो बजाने वाला, की बोर्ड बजाने वाला, रामढोल बजाने वाला, पारकेशन (झुनझुना) बजाने वाला, आॅक्टो पैड बजाने वाला, तबला और ढोलक बजाने वाला कलाकार होता है। कार्यक्रम बंद होने के कारण इन कलाकारों  की आय का जरिया पूरी तरह से बंद हैं। कव्वाली के ज्यादातर श्रोता और कलाकार अल्पसंख्यक व मध्यम वर्ग से आते हैं। इस वजह से इन कलाकारों का हाल अच्छा नहीं है। अपने पेशे और जीवन की भी रक्षा की गुहार किससे लगाएं?’