इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे, खत्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है...!
इस ‘शाहजहां’ का ताजमहल गुम क्यों है?
प्यार पर निछावर ये शाहकार कैंट स्टेशन पर आज भी उनकी याद समेटे है
सौ सालों के सफर में इसके दरवाजे लाक डाउन में पहली बार लॉक हो गए
विजय विनीत (vijay vineet)
वाराणसी। मुगल बादशाह शाहजहां की मुमताज आगरा में अमर हो गईं और उनके मोहब्बत के जनाजे वहां दफन हैं। लोग आज भी उन्हें देखकर अपने प्यार को संजीवनी देने जाते हैं। लेकिन काशी की हुस्नाजान वैसी नसीब वाली नहीं रहीं। इनके इश्क को वक्त की गुमनामी नसीब हुई। हुस्नाजान ठुमरी की मलिका थीं। हुस्ना नाम से ही नहीं रूप से भी थीं। उनका भी एक प्रेमी था, प्रेम उन्होंने भी किया था। और शाहजहां की तरह शाहकार तो नहीं बना सकीं, लेकिन अपने प्रेमी की याद में बनारस की सबसे विशाल धर्मशाला बनवाई थी। नाम है श्रीकृष्ण धर्मशाला। कैंट स्टेशन के सामने आज भी आबाद है। हुस्ना ने बनारस आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए इसका तामीर कराया था। गर्ज ये थी कि कोई भटकता हुआ काशी आ गया, तो फौरन कहां जाएगा। पास ही कयाम तो कर सकेगा। वो प्रेम की यादगार तो नहीं बनवा सकती थीं पर अपने आशिक के लिए स्मारक बनाया, जहां राह भटके लोग रह सकें। लेकिन इतने दिनों तक कयाम करने वालों से गुलजार रहने वाला धर्मशाला करीब 119 साल बाद पहली बार लाकडाउन का शिकार हो गया। तब उन्होंने इस शब्द का मतलब भी नहीं सोचा होगा।
हुस्नाजान काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह की दरबार की गायिका थीं। इन्हें ‘सरकार’ के खिताब से सरफराज किया गया था। लोग इन्हें हुस्नाबाई के नाम से जानते थे। वो ठुमरी, ख्याल और टप्पा गाती थीं। दरबार की गायिका थीं तो जाहिर है आवाज और तान में जादू होगा। यूं सबका दिल जीत लेतीं थीं। बनारस की ऐसी पहली तवायफ थीं जिन्हें साहित्य से खासा लगाव था। साहित्य प्रेम ही उन्हें उस दौर के नामी साहित्यकार बाबू अयोध्या प्रसाद के करीब ले आया। पास बैठना हुआ तो इश्क भी परवान चढ़ा। वो उतना गाढ़ा था कि दोनों का रंग यकसा हो गया। हुस्ना स्त्री थीं तो अयोध्या बाबू से बेपनाह मुहब्बत उनकी रजा थी। शादी भले ही नहीं कीं,लेकिन पत्नी धर्म जीवन भर निभाया।
ठुमरी की साम्राज्ञी हुस्नाजान को लोग हुस्नाबाई के नाम से जानते थे। बनारस की मशहूर तवायफ थीं। बनारस के गजेटियर के मुताबिक, हुस्ना ने अपनी मुहब्बत को अमर बनाने के लिए कैंट पर श्रीकृष्ण धर्मशाला का 1901 में निर्माण कराया। यह बनारस की सबसे बड़ी धर्मशाला है। हुस्नाजान ने उस दौर में ढाई-तीन लाख रुपये खर्च किये थे। वो श्रीकृष्ण की परमभक्त थी। गीत-गोविंदम गाती थीं। कहा जाता है कि गीत-गोविंदम जहां भी गाया जाता है उसे श्रवण करने भगवान श्रीकृष्ण खुद मौजूद होते हैं। बनारस के सिद्धस्त कलाकार पंडित शिवकुमार शास्त्री के पिता गिरिधारी महाराज ने हुस्नाजान को कृष्ण पूजा की पद्धति सिखाई थी।
कैंट की श्रीकृष्ण धर्मशाला में भगवान श्रीकृष्ण का एक अद्भुत मंदिर है। इस मंदिर की नींव खुद हुस्ना जान ने रखी थी। इस धर्मशाला में 69 कमरे हैं। मंदिर के पास एक कुंआ है। पहले एक विशाल तालाब भी था, जिस पर इन दिनों अराजकतत्वों का कब्जा है। पहले जो भी तीर्थयात्री बनारस आते थे वो इसी धर्मशाले में रुकते थे। भोजन बनाते थे। तालाब में स्नान करते थे। श्रीकृष्ण मंदिर में पूजा-अर्चना करने के बाद बाबा विश्वनाथ के दरबार में मत्था टेकने जाते थे।
चर्चित साहित्यकार रहे विश्वनाथ मुखर्जी की पुस्तकों में हुस्नाजान का जिक्र है। संगीतमय बनारस में भी। हुस्नाजान और श्रीकृष्ण धर्मशाला के कई साक्ष्य मौजूद हैं।
भारतेंदु युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत हुई। उसी दौर में हुस्ना, बाबू अयोध्या प्रसाद के नजदीक आईं। तभी उनकी दोस्ती साहित्यकार श्याम सुंदर प्रसाद से हुई। साल 1905 में अयोध्या प्रसाद का निधन हो गया। तब हुस्ना परेशान हो गईं। अयोध्या प्रसाद और श्याम सुंदर दोनों ही खत्री समुदाय से आते थे। इस वजह से हुस्ना ने श्रीकृष्ण धर्मशाला को श्याम सुंदर के हवाले कर दिया।
बाबू अयोध्या प्रसाद से हुस्नाजान की एक बेटी भी पैदा हुई थी। नाम था तारा उर्फ बाबा। बाद में वो असाध्य रोग से पीड़ित हो गई। पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद हुस्नाजान उसे नहीं बचा सकीं। इसके बाद हुस्ना मन से टूट गईं। बाहर कार्यक्रम करना बंद कर दिया, लेकिन संगीत का अनुराग कभी नहीं छोड़ा।
मौजूदा समय में श्रीकृष्ण धर्मशाला की देखरेख अशोक खन्ना और उनके साथी कर रहे हैं। धर्मशाला के प्रबंधक विवेक शर्मा बताते हैं कि अशोक खन्ना, श्याम सुंदर दास के परपोते हैं। इनके अलावा अशोक वाही, सावित्री देवी, राजेंद्र प्रताप पांडेय ने मिलकर इस धर्मशाला की शक्ल बदली है। एक समय यह धर्मशाला जीर्ण अवस्था में पहुंच गई थी।
अपने दौर की इस बेजोड़ गायिका को लोग सरकार कहकर बुलाते थे। वो तंबूरे पर गाती थीं। गाने के रियाज के समय सारंगी पर संगत करते थे ठाकुर प्रसाद के साले शंभू। महफिलों में सुरसहाय सारंगी और बलदेव सहाय तबले पर संगत करते थे। वो नृत्यांगना भी थीं।
दस्तावेज बताते हैं कि हुस्नाजान का रहन-सहन शाही था। चांदी की बैठी पर चैन से हुक्की गुड़गुड़ाना इनका शगल था। शाम को गुलाबजल से स्नान करती थीं। इनके दरवाजे पर बैठे दरवान की अनुमति के बगैर कोई इनके कोठे पर नहीं चढ़ सकता था। वो अदब, तहजीब, जिलाह के लिए मशहूर तो थी हीं, विद्वता के लिए भी जानी जाती थी। हुस्ना कविता व गीत लिखती थीं और उर्दू में शेर भी। इनकी रचनाओं का एक संग्रह छपा था-दीवान-ए-हुस्न। वो बहुभाषी थीं। सबसे बड़ी बात यह है कि औघड़ बाबा कीनाराम में उनकी अगाध श्रद्धा थी। इन्हें संगीत की तालीम पियरी घराने के संगीतपुरोधा छोटे रामदास ने दी थी।
राष्ट्रभक्त थीं हुस्ना
वाराणसी। ठुमरी गायिका की गायिक हुस्ना बाई भक्ति और राष्ट्र भक्ति के गीत गाती थीं। साथ ही दूसरे गायकों को भी ऐसे गीत गाने के लिए प्रेरित करती थीं। 1900 के पहले दशक की शुरुआत में गायन परंपरा को फिर से परिभाषित करने और और उसमें क्रांति लाने का श्रेय उन्हें दिया जाता है। हुस्ना बाई और भारतेन्दु हरिश्चंद्र समकालीन थे। उनके साथ पत्राचार किया और काव्य अभिव्यक्ति पर उनकी सलाह और राय ली। भारतेन्दुजी ने ही उन्हें जयदेव द्वारा गीत गोविंद की रचना करने के लिए भी कहा। वह विद्याधरी बाई और बड़ी मोती बाई की समतुल्य थी, लेकिन रियाज से वो महान ऊंचाइयों पर पहुंच गईं।
महात्मा गांधी ने जब बनारस में असहयोग आंदोलन (1920-22) के दौरान यात्रा की,तब हुस्नाबाई ने एक आंदोलन शुरू किया। उन्होंने महिला गायकों को भजन और देशभक्ति गीत गाने पर राजी किया।
बाद में कई तवायफें गांधीजी के चरखा आंदोलन में शामिल हो गईं। तवायफों को पहचान दिलाने के लिए हुस्नाबाई ने ही तवायफ सभा का गठन किया। विदेशी सामानों की जब होली जलाई जा रही थी, तब उस आंदोलन में हुस्नाबाई ने अहम भूमिका अदा की। साथ ही उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को अपनाया था।