बनारस ने खो दी हंसी और मस्ती

लाकडाउन की वीरानी में बनारसियों के दिलों में दीया की आस


वरुणा और अस्सी के बीच बसा है बनारस। धर्म, विद्या, संस्कृति, संगीत, कला और मौजमस्ती का नाम है बनारस। शायद इसीलिए बनारस का नाम लेते ही धार्मिक सनसनाहट शुरू हो जाती है मन-मस्तिष्क में। कहते हैं भगवान शिव शंकर के त्रिशूल पर बसी नगरी  काशी की गंगा मुक्तिदायिनी है। वह गंगा जो पाप-ताप का नाश करती है। बनारस आकर्षक घाटों के मकड़जाल और गलियों में है। अपनी अकड़ चाल और मधु-मिश्री बोली के साथ मिश्रित वेशभूषा, पहनावा और मस्ती के कारण यह त्रिलोक में न्यारी है। गंग और भंग भवानी सी शिव को प्यारी काशी कोरोना में कितनी बदली है। वरिष्ठ पत्रकार य विनीत बता रहे हैं कि मस्ती बनारस का स्थायी भाव है। लाकडाउन है, लेकिन उदासी नहीं है...। लोग इस फांस को भी गले से उखाड़कर गंगा में फेंकने को तैयार है...। बनारसी मस्ती हमारे आसपास ही मौजूद है और हमेशा रहेगी।

 

असर: बनारस की मौजमस्ती निगल गया कोरोना, नजरबंदी में अब बनारसियत भूलते जा रहे हैं लोग
बदलाव: अंदर जो सेवा और परोपकार का भाव था, जिसे हम भूल रहे थे, प्रकृति ने उसे हमें फिर याद दिला दिया

विजय विनीत (vijay vineet)


बनारस की पहचान एक जिंदादिल शहर के रूप में लोगों के जेहन पर चस्पा है। लॉकडाउन में इन दिनों बनारसियत नजरबंद है और काशीवासी भी। ठहर सा गया है बनारस। मगर खांटी बनारसी ऐसा नहीं मानते। वो जानते हैं कि ये शहर धीरे-धीरे हमेशा चलता रहता है, लेकिन दौड़ में कभी नहीं पिछड़ता। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि सात बार नौ त्योहार मनाने वाले इस अड़भंगी शहर बनारस के लिए कोरोना और लाकडाउन का संकट भी एक पर्व जैसा ही है। बनारस का जो शिवत्व था जो इस शहर को हमेशा जागृत अवस्था में रखता था, लगता है वो शिवत्व कहीं लुप्त हो गया है, हालांकि हुआ नहीं है। अब तक माना जाता था कि बनारस कभी सोता नहीं था, पर अब वो अब मुंह ढंककर सो गया है। कुंभकरणी नींद में। यह नींद कब टूटेगी, कोई नहीं जानता? ऐसा भी नहीं है कि ये शहर हमेशा सोया ही रहेगा। जिस दिन जागेगा, उसकी जीवंतता दोगुना रफ्तार पकड़ लेगी।

सुबह-ए-बनारस इसलिए जाना जाता है कि इस शहर में सभी धर्मों और कौमों की ‘मां’ हैं गंगा। इसकी हर बूंद में बसा है बनारस। लॉकडाउन में बनारस की गंगा जरूर निर्मल हुई हैं और अविरल भी, मगर वो चुपचाप सिर झुकाए बह रही हैं, खामोशी के साथ। बनारस की गंगा ने ऐसी खामोशी पहले कभी नहीं देखी थी। बिना घंटे-घड़ियालों और शंख-डमरुओं की ध्वनियों को सुने बगैर स्थिर बहने वाली गंगा खुद भी हैरान है...और वीरान है....। लाकडाउन में मंदिरों के पट बंद हैं और घंटे खामोश हैं। बनारस की मस्ती भरी चहल-पहल मरघटी सन्नाटे में बदल गई है। लॉकडाउन के चलते वो दिन अब लद गए हैं जब धूप से नहाए, गंगा किनारे चबूतरे पर पीठ टिकाकर आकाश के भूगोल को नापने और झुकने वाले बनारसी गंभीर से गंभीर संकट को हंसकर उड़ा देते थे। नजरबंदी के चलते लोग अब बनारस की रवायत भूलते जा रहे हैं।
बनारस के जाने-माने पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, -"कोई बनारसी ये कहे कि वो लॉकडाउन में भी मस्त है तो सरासर झूठ बोलता है। बनारसी झूठ नहीं बोलता। जो झूठ बोलता है वो बनारसी हो ही नहीं सकता। दुनिया जानती है कि बनारस को कैद में नहीं रखा जा सकता। कर्फ्यू के दिनों में भी नहीं। पुलिस तब भी रोकती थी और अब भी रोकती है। हमेशा यही जवाब मिलता है, गोली मार दा, लेकिन घर के बाहर गल्ली में तनी सांस त ले लेवे दा।"
कुछ लोगों का मानना है कि स्वच्छंद और उन्मुक्त जीने का आदी रहा बनारस पूरी तरह बदल गया है...। जीवन की पूरी शैली सिर के बल घूम गई है..., परंपराएं बदल गईं हैं...। बहुत सारी ऐसी चीजें थीं, जो पुरानी रवायतों को जिंदा रखे हुए थीं। वो लाकडाउन में खत्म हो गईं। तीज-त्योहार और जमावड़ा। सचमुच लाकडाउन ने बनारस शहर की रंगत बदल दी है। शहर की वो अड़ियां वीरान हो गई हैं, जहां बिना काम के भी जमघट लगाए बगैर लोगों को चैन नहीं मिलता था। शहर में लॉकडाउन हुआ तो एहसास हुआ कि कुछ दिनों में यह शहर पुराने ढर्रे पर आ जाएगा, लेकिन बदलाव का वो दौर कब आएगा, इसका हर किसी को अभी इंतजार है।



बाबा विश्वनाथ का दरबार बंद हुआ तो कालभैरव और संकट मोचन मंदिर के पट भी बंद हो गए। शहर के सभी मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों पर ताले जड़ गए। सैलानियों से गुलजार रहने वाले गंगा घाटों का सन्नाटा तो टूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह सब पहली बार हुआ। अगर कुछ नहीं टूटा तो बनारसियों का धैर्य। लोग अब भी एक दूसरे को आश्वस्त करते दिख रहे हैं, - "चिंता क कौनो बात नाहीं। सब कुछ ठीक हो जाई।" हालांकि कोरोना ने बनारस की जीवनशैली, संस्कृति ही नहीं, तीज-त्योहारों पर भी गहरा असर डाला है। पहले होली मिलन के कार्यक्रम टले। बाद में न बुढ़वा मंगल की महफिल जमी, न गुलाबबाड़ी की। नवरात्र और रामनवमी भी घरों में खामेशी के साथ मनाई गई। ऐसा लगा दिल से कुछ टूट कर कहीं गुम हो गया।
वरिष्ठ पत्रकार कुमार अजय कहते हैं, -विभूति जहां विभूति हो वहां मरण मंगल हो उस शहर के लिए किसी गंभीर समस्या पर गंभीर होने की आशा करना ही फिजूल है। बीमारी हो या बवंडर। कोई भी कार्यक्रम दीजिए, यह शहर तुरंत शहनाई बजवाने का डौल बांधने लगेगा। मौजमस्ती, गंभीर से गंभीर संकट को हंसकर उड़ा देने की आदत और घुलाते पान के साथ पिघलती बनारसियों की संवेदनशीलता लॉकडाउन में थमी जरूर है, लेकिन खत्म नहीं हुई है। वो ये भी कहते है,- कोरोना का संकट तो आज आया है, लेकिन भांग-बूटी, साफा-पानी, बहरी अलंग की दीवानगी और मौजमस्ती से सराबोर एक पीढ़ी तो कब की खत्म हो चुकी है। वही पीढ़ी जो भांग छानकर भी हमेशा होश में रहती थी...। झूम-झूमकर संगीत का आनंद लेती थी...। भांग-बूटी के बादशाही नशे में भी गहरेबाजी का जौहर दिखाती थी...। लॉकडाउन में जो पीढ़ी फंसी है वो बनारस की दूसरी पीढ़ी है। वो पीढ़ी जो अक्सर नशे में डूबी हुई मिलती थी। हेरोइन और हशीश की जानलेवा लत की शिकार पीढ़ी। ये वो पीढ़ी है जो बनारस की पुरानी पहचान कोरोना के आने से पहले ही इस शहर की मस्ती छीन चुकी है। घाटों और सुनसान गलियों, खंडहरों, होटलों और हॉस्टलों में हेरोइन पीने वाली पीढ़ी से ये उम्मीद कतई न पालिएगा कि वो बनारसियत को जिंदा रख  पाएगी।"
लाकडाउन और बनारसियत के मामले में वरिष्ठ पत्रकार कुमार अजय के चेहरे पर तल्खी साफ-साफ झलकती है। वो कहते हैं, - "कहां गए वो अखाड़े और फक्कड़ गहरेबाज? जादूगरी की तरह कमाल दिखाने वाले पतंगबाज? बुलबुल, तीतर-बटेर और कबूतरों को चारा चुगाकर खुद मस्ती का बेहिसाब आलम खड़ा करने वाले बनारसी रहीस? बनारस की नई पीढ़ी से बनारस की इस मौजमस्ती से आज भी परहेज है।"
यह सच है कि बनारस को कोरोना ने करीने से डंसा है। उसकी चोट हर किसी को लगी है। लहर भी आ रही है, ऐसी लहर जिसे यह शहर शायद ही भूल पाएगा। अगर भूल भी गया तो उन जख्मों को कैसे भूल पाएगा जो रईसाना अंदाज की तिलमिलाहट का इजहार किया करती थी। बहती गंगा में डुबकी लगाने की फिक्र किसको है? बनारस को जिंदा रखना है तो अडभंगीपन को जिंदा रखना होगा। चाहे वो घर के अंदर हो या फिर बाहर। चाहे गलियों में हो या सड़कों पर।
लाकडाउन के बाद बनारसियों को यह पता नहीं है कि अब बनारस की सुबह होती है या नहीं? अगर होती है तो कैसी होती है? जाहिर है कि सुबह तो हर रोज होती है, लेकिन घरों के अंदर नलों और शावर में नहाकर होती है। या फिर राशन की दुकानों पर कतार में खड़ा होने वाली होती है। पूरी तरह ठहरी है काशी। अभी तो बीते दिनों की याद की जा रही है। पहले लोग कहते थे कि जिÞंदगी का असली मजा पाना है तो बनारस आइए, क्योंकि जो मजा बनारस में, वो न पेरिस में, न लंदन में। फिलहाल, काशी के रहने वाले अपनी बारी के इंतजार में हैं। बनारस में अगर कुछ नहीं टूटी तो इसकी परंपराएं। बनारस की वो परंपराएं जो सालों से निभाई जा रही हैं। आनलाइन ही सही, बाबा का दर्शन हो रहा है। इसी तर्ज पर संकट मोचन संगीत समारोह भी आॅनलाइन हुआ। कलाकारों की प्रस्तुति को भी आभाषी दुनिया के जरिए सबने देखा। बनारस की बतकही और अड़ियां इस वक्त आनलाइन हैं। ये अड़ियां चाहे लंका की हो, अस्सी की हो, गोदौलिया या फिर चौक की ही क्यों न हो। बीएचयू के प्रोफेसर डा.विजयनाथ मिश्र भी ग्लोबल ज्ञान बांट रहे हैं।



वरिष्ठ पत्रकार धर्मेंद्र सिंह कहते हैं,- "शिव-शक्ति के दम-दम और बाबा के बम-बम से गूंजते इस शहर से समूची दुनिया को उम्मीद के खिलाफ उम्मीद रहती है। तभी तो यहां का सांसद, देश का प्रधानमंत्री है। दुनिया भर से लोग यहां आते हैं। कुछ को तो ये शहर इतना रास आता है कि वो हमेशा के लिए बनारसी हो जाते हैं। अल्हड़ बनारस अपनी बेफिक्री और फक्कड़पन के लिए मशहूर है। यहां मरने पर मोक्ष मिलता है। बनारस ऐसा गुरु है जो मरना नहीं, जीना सिखाता है।"
धर्मेंद्र ये भी कहते हैं, - "बनारसीपन एक जीवन पद्धति है। इसे करोना तो क्या, कोई नहीं बदल सकता। कम नहीं कर सकता। बाबा की कृपा है। यहां का हर बाशिंदा अपने अलग मिजाज में जीता है। उसे बड़े से बड़े प्रलोभन और पद-प्रतिष्ठा या फिर शोहरत प्रभावित नहीं करती। जो अक्खड़ बनारसी है वो बड़ी बड़ी चीजों को ठेंगे पर रखता है। कोरोना संकट का दौर भी काशी को नहीं डिगा पाएगा। इस बीच एक सकारात्मक बदलाव जरूर आया है कि हम प्रकृति के करीब आए हैं। हमारे अंदर जो सेवा और परोपकार का भाव था, जिसे हम भूल रहे थे, प्रकृति ने उसे हमें फिर याद दिला दिया है।"


बनारस की यादें-----