बनारस की औरतें हर महीने चाहती हैं अब एक दिन का लाकडाउन





लाकडाउन में बढ़ गई महिलाओं की कद्र



लाइव बनारस : विजय विनीत (vijay vineet)

 

वाराणसी। लॉक डाउन ने बहुत कुछ बदला है। औरतें मर्द सी, और मर्द औरत से हो गए हैं। बनारस शहर की कई महिलाओं से बात हुई। सबने कहा, अब दिन फिर गए हैं। वो पार्टनर की तारीफ करते नहीं थक रही हैं। इन्हें अपने शौहर के साथ खाना बनाना और घर के कामों में हाथ बंटाना भाने लगा है। अब औरतें भी चाहती हैं कि उनके पति चांद जैसी रोटियां बनाएं और वो उन पर गर्व करें। दरअसल, पतियों के खाना बनाने की स्किल ने महिलाओं को काफी प्रभावित किया है। अपने शौहर के हाथ का लजीज भोजन खाना महिलाओं को रोमांटिक बनाने लगा है। लाकडाउन में यह बदलाव तेजी से आया है। इससे जीवन की गुणवत्ता सुधरने भी सुधरी है।

राकेश सिन्हा को ही लें। ये पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम के अधिकृत प्रवक्ता हैं। बनारस के कंदवां में रहते हैं। लाक डाउन में इन्होंने अपनी भूमिका बदल ली है। चंद दिनों में इन्होंने अपनी पत्नी ऊषारानी सिन्हा से बहुत कुछ सीख लिया है। खाना बनाने से लेकर चौका-बर्तन और साफ-सफाई तक का काम। वो कहते हैं, - "मुझे यह बताने में अब कोई गुरेज नहीं है कि मुझे खाना बनाना आता है। चने की घुघनी या फिर मकुनी। ऐसा बना दूंगा कि लोग हाथ चाटते रह जाएंगे। परवल और भिंडी की भुजिया से लेकर लजीज तहरी भी हम बनाने लगे हैं। बर्तन से लेकर घर साफ करने में अब तनिक भी हिचक नहीं होती। सालों तक मुझे पत्नी ने चाय पिलाई, अब अलसुबह हम पिलाते हैं। लाक डाउन में मेरी पत्नी ने यह हुनर हमें अच्छी तरह सिखा दिया है।"

औरतों को बदलनी चाहिए भूमिका: राकेश की पत्नी ऊषा रानी कामकाजी महिला हैं। सिंचाई विभाग के नलकूप प्रखंड में प्रशासनिक अधिकारी पद पर तैनात हैं। वो बेबाकी से स्वीकार करती हैं कि लाक डाउन ने मर्दों की भूमिका बदल दी है। वो चाहती हैं कि हर महीने एक दिन लाक डाउन जरूर हो। इससे जिंदगी जीने की गुणवत्ता में सुधार होगा। मेरे कहने का अर्थ ये नहीं कि हम ऐसी ही दुनिया बनाना चाहते हैं। असल में हम यह चाहते हैं कि सब स्वस्थ और आजाद रहें।


ऊषा यह भी कहती हैं,- ‘लाक डाउन में अब पुरुषों को भी एहसास होने लगा है कि औरतों की भूमिका बदलनी चाहिए। केवल घरों में ही नहीं, हर जगह। जब सत्ता औरतों के हाथ में आ जाए और वो उस सत्ता का वैसा ही दुरुपयोग करें जैसा पुरुष प्रधान समाज में पुरुष करते हैं।’ यूं तो बनारस में घरों की औरतें लगभग रोज ही खाना बनाती हैं। शायद यह उनका फर्ज माना जाता है। किसी दिन पुरुष खाना बना दे तो पत्नी ही नहीं, मां भी उसकी तारीफ करते नहीं थकती। ये कहानी हर घर नहीं, मगर ज्यादातर घरों की है।

खुद को फेमिनिस्ट न मानें मर्द : बनारस में किचन में घुसने और खाना बनाने वाले मर्दों को फेमिनिस्ट माना जाता है। इस इमेज की वजह से शहर के तमाम मर्द चाहकर भी खाना बनाना, किचन में घुसना नहीं चाहते थे। लॉकडाउन ने इस दाकियानूसी सोच को बदला है। बनारस के कारोबारी संजीव सिंह बिल्लू को ही लें। वो सिगरा-महमूरगंज मार्ग पर रहते हैं। लाकडाउन के बदलाव को वो संजीजगी से महसूस करते हैं। कुछ ही दिनों में इन्होंने नाश्ता बनाने से लेकर तमाम तरह का व्यंजन बनाना सीख लिया है। घर के जो काम नौकर करते थे अब सब कुछ वो खुद कर रहे हैं।

वो कहते हैं, -‘लाक डाउन में यह बात भी समझ में आ गई है कि ये नौकर हमें कितना गंदा खाना हमें परोस रहे थे। घर में लगे जिन पेड़ों में ग्रोथ नहीं हो पा रही थी, उनकी देख-रेख खुद शुरू की तो बगिया की रंगत ही बदल गई। पौधे दस गुना अच्छे हो गए। गौरैयों का कलरव बढ़ गया। कुत्ते की देखभाल करना आ गया। पहले ये सारा काम नौकरों के हवाले थे। जो स्टोर रूम कूड़ा घर बन गया था, अब साफ-सुथरा हो गया है।’

पहले हम लाट साहब बन बैठे थे : बिल्लू यहीं नहीं रुकते। बात आगे बढ़ाते हैं। बेबाकी के साथ कहते हैं,- "पहले हम लाट साहब बने बैठे थे। घर के प्रति संजीदा कतई नहीं थे। लाकडाउन ने हमें संवेदनशील बनाया है। घर के प्रति संजीदगी की भाषा समझाई है। जिस आधे सच को शादी के सालों बाद नहीं देख पाए थे  उसे चंद दिनों देख लिया और समझ भी लिया।"

सचमुच संजीव सिंह की बातों में दम है। हालांकि कुकिंग का स्टीरियोटाइप जितना औरतों के लिए कठोर है, उतना ही मर्दों के लिए भी जटिल है। बनारस में यह आम धारणा रही है कि जिस तरह परफेक्ट औरत को खाना बनाना आना चाहिए, उसी तरह परफेक्ट मर्द का कुकिंग से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। आज भी देश का एक बड़ा वर्ग रसोई का काम औरतों के लिए पेटेंट मानता है। औरत चाहे डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, एक्ट्रेस, पत्रकार या कुछ भी हो, अगर खाना पकाना जानती है, तभी वो सर्वगुण संपन्न समझी जाती है।


सोच बदलें बनारस के यूथ : बनारस के तमाम युवाओं ने इस भ्रम को अब तोड़ना शुरू कर दिया है कि सिर्फ महिलाएं ही खाना बना सकती हैं और घर का कामकाज कर सकती हैं। मंडुआडीह के पंकज गुप्ता अपनी पत्नी नैंसी गुप्ता के साथ मिलकर खाना बनाने में फक्र महसूस करते हैं। पति के हाथों से बने खाने की शानदार खुशबू ने नैंसी के दोस्तों को उनका घर ढूंढना आसान बना दिया है। इनके घर के अंदर पहुंच कर अलग ही मंजर देखने को मिलता है। दोस्तों के बीच खड़े पंकज पैन में चम्मच हिलाते नजर आते हैं। जो देखता है वो सोचता है कि इनका अब अगला स्टेप क्या होगा? वह अगला कौन सा मसाला डालेंगे?

इनकी पत्नी नैंसी भी खाना बनाने में हाथ बंटाती हैं। खाने की टिप्स के साथ यह भी सिखाती हैं कि भोजन बनाते समय आसपास स्लैब पर सफाई कैसे रखी जाए? नैंसी कहती हैं -"खाना बनाने के मामले में पुरुषों को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए। बनारस के लोगों की यह धारणा आम है कि पुरुषों का रसोई घर में कोई काम नहीं। मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़कों को यह कुकिंग नहीं सिखाई जाती, जबकि ज्यादातर होटलों में शेफ या खानसामा पुरुष ही होते हैं। इसके बावजूद ज्यादातर मर्द यह उम्मीद करते हैं कि स्वादिष्ट खाने की थाली सजाकर उनके सामने मेज पर लाई जाए।"

शहर के तमाम मर्दों ने अपने घरों में खाना बनाने से लेकर झाड़ू-पोंछा लगाने का हुनर सीख लिया है। औरतें जो काम रोज करती रही हैं, लाकडाउन के दिनों में वो अब मर्द भी करने लगे हैं। इससे कपल्स के रिश्ते भी प्रगाढ़ हुए हैं। मर्दों को तारीफें भी मिल रही हैं। पत्नी की भी और बच्चों की भी। शहर में हमें कई महिलाएं ऐसी मिलीं जो अपने पति के खाना बनाने के नए स्किल डेवलपमेंट से काफी खुश हैं। महिलाएं अपने पतियों की तारीफ के पुल बांधने से नहीं थक रही हैं। बनारस शहर के ज्यादातर मर्द पहले इस सुख वंचित थे। वजह- काशी के ज्यादातर मर्द पहले ये काम नहीं कर रहे थे।


मर्द क्यों बनाएं खाना? : लंका के कारोबारी रवि प्रकाश जायसवाल ने लाक डाउन में रोटी, सब्जी, पूड़ी के साथ अलावा लजीज पकौड़ी बनाना सीख लिया है। साथ ही घर की साफ-सफाई भी अब पत्नी के साथ मिलकर कर रहे हैं। रोजाना पूरे घर का सैनेटाइजेशन भी करते हैं। रवि की पत्नी रीमा जायसवाल हंसी मजाक में कहती हैं कि लाक डाउन में पुरुषों को खाना बनाने काम सहज ढंग से सीख लेना चाहिए। उनके पति अब कुकिंग में पारंगत हो गए हैं। वो ये भी कहती हैं, "मौजूदा समय में बड़ी संख्या में युवक पढ़ाई अथवा नौकरी के लिए अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य देशों में जाते हैं। जिनके अंदर कुकिंग स्किल होती है उन्हें कहीं दिक्कत नहीं होती। अकेले रहने वाले लोगों को भी कुकिंग सीखने में संकोच नहीं करना चाहिए।"

रीमा बताती हैं, "मेरे पति के कई दोस्तों का फोन आता है तो पता चलता है कि वे इस बात की ग्लानि से भरे होते हैं कि उन्हें स्टोव जलाना अथवा चाय तक बनाना नहीं आता। मैं उन्हें प्रोत्साहित करती हूं कि कुकिंग स्किल लाकडाउन में सीख लें। यह कोई बुरी बात नहीं है। कइयों ने इसकी पहल शुरू कर दी है।"

मंडुआडीह के कारोबारी नीलकांत गुप्ता और इनके भाई शशिकांत गुप्ता ने भी लाक डाउन  में अपनी कुकिंग स्किल को उकेरा है। दोनों भाइयों ने पूड़ी बनाने से लेकर हर वो रेसिपी सीख ली है जो अपरिहार्य स्थितियों के लिए जरूरी है। नीलकांत और शशिकांत ने लाक डाउन में गुझिया से लेकर पनीर की सब्जी बनाने की कला अच्छी तरह सीख ली है। वो अब इस दबाव से मुक्त हो गए हैं कि अगर घर में खाना बनाते हैं तो समाज उनका मजाक उड़ाएगा। शशि की पत्नी कविता बताती हैं,- " उनके पति पहले अपने साथियों को यह नहीं बताते थे कि वो घर लौटकर किचन का काम भी करते हैं। अब फक्र के साथ कहते हैं, -घर आइए। पता चल जाएगा। हम अपनी बीवी के लिए खाना भी बनाते हैं। अब उन्हें समाज के तानों से कोई डर नहीं लगता।"

पोषक और तसल्ली देता है खुद का खाना :

नीलकांत की पत्नी रजनी रिंकी उस परिवार से आई हैं जहां घर का सारा काम नौकरों के जिम्मे रहता है। वो बताती हैं कि उनके पति खाना बनाने के खास शौकीन तो नहीं लेकिन जरुरत पड़ने पर वह उनकी मदद करने में हिचकिचाते नहीं हैं। रिंकी मानती हैं कि जब पुरुष किचन में महिलाओं के साथ जिम्मेदारी बांटने लगते हैं तो महिलाओं के प्रति उनका नजरिया बदल जाता है। महिलाओं की इज्जत करना सीख जाते हैं। मर्दों को यह समझ में आ जाता है कि परिवार का पेट भरना कोई आसान काम नहीं।


रिंकी कहती हैं, "आधुनिक समाज के रहन सहन के तरीकों में घर पर खाना बनाने का चलन कम होता जा रहा है। कामकाजी महिलाओं को जब घर पर पति का साथ नहीं मिलता तो वे भी अक्सर खाना बनाने से बचने लगती हैं। ऐसे में रेस्तरां और फास्टफूड वाली जीवनशैली को बढ़ावा मिल रहा है। पुरुष या महिला, हर किसी को अपना खाना खुद बनाना आना चाहिए। जिन पुरुषों को खाना बनाना नहीं आता, उन्हें लाक डाउन में जरूर सीख लेना चाहिए। खुद का बनाया हुआ खाना पोषक और तसल्ली देने वाला होता है।"


खाना बनाना महिलाओं के नाम 'पेटेंट' नहीं

वाराणसी। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में पोस्ट डायरेक्ट फेलो एवं समाजशास्त्री डा.सुनील मिश्र मानते हैं कि पुरुष समाज ने जानबूझकर खाना बनाने का काम महिलाओं के नाम पेटेंट कर दिया है। लाक डाउन में भले ही पुरुषों ने कुकिंग स्किल नहीं बढ़ाई, लेकिन किचन के नजदीक जरूर आ गए हैं। चौका-बेलन के प्रति उनका नजरिया बदला है। अभी तक समाज की धारणा रही है कि मर्द रो नहीं सकता...। डर नहीं सकता...।  सिर्फ कमाना और परिवार की रक्षा करना उसका कर्तव्य है...। ऐसे ही अनगिनत स्टीरियो टाइप कर्तव्य ने तमाम पुरुषों की सॉफ्ट जिंदगी को तबाह कर दिया है। अब इसे बदलने का वक्त भी है और मौका भी। समाज में सदियों से परंपरा चली आ रही है कि अगर आप लड़की के लिए कुर्सी खीचेंगे या कार का दरवाजा खोलेंगे तो तभी आपको अच्छा माना जाएगा। अगर घर का काम करने या खाना बनाने लगे तो आप पर उंगली उठनी शुरू हो जाएगी। यही वजह है कि ऐसी कितनी सारी बातें हैं, जो लड़के चाहकर भी बता नहीं पाते, क्योंकि उन्हें हमेशा यही सिखाया गया है कि 'मर्द को दर्द नहीं होता!'


न भ्रम पालें, न दाकियानूसी सोच : डा.मिश्र कहते हैं कि कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही युवाओं के मन में ये विचार कौंधने लगते हैं कि अब तो घर संभालना है। अच्छी जगह जॉब ढूंढनी होगी। ज्यादा कमाना होगा, क्योंकि तभी गृहस्थी चल पाएगी। जॉब लगने के बाद जब शादी होती है, तब ये जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं। शुरुआत से ही ये माना जाता है कि लड़कों को ही सारी जिम्मेदारियां निभानी है। इसी दबाव में कई बार लड़कों को अपने सपने...अपनी इच्छाएं भी दबानी पड़ती हैं। इसी उधेड़बुन में टूट जाता है कुकिंग स्किल बढ़ाने का सपना। वो ये भी कहते हैं कि सिर्फ लड़कियों को ही नहीं, लड़कों को भी घरवालों के लिए खाना बनाना अच्छा लगता है। सामाजिक कुंठाओं के चलते खाना बनाना नहीं सीख पाता।

 

साथ खिलाने का जज्बा भी दिखाएं : समाजशास्त्री सुनील मिश्र कहते हैं कि बात सिर्फ खाना बनाने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। पुरुषों ने अगर रसोई में घुसकर खाना बनाने की पहल शुरू की है तो घर भर की महिलाओं को साथ बैठाकर खिलाने का जज्बा भी दिखाना होगा। कितनी ही अच्छी नौकरी करने वाली लड़की क्यों न हो पर घर की यह जिम्मेदारी उसी के सिर मढ़ दी जाती है। परिवार जब एक साथ खाना खाता है तो स्वादों के साथ उन लजीज बातों का दौर शुरू होता है, जो उनके बीच के नजदीकियां बढ़ाता है।

बनारस में साथ खाने की संस्कृति को बढ़ावा नहीं दिया गया है। पुरुष और बच्चों को पहले खिलाने की प्रथा रही है। बाद में घर की महिलाएं खाती हैं। जिसका अनचाहा दुष्परिणाम देखने को मिलता है। लाखों गरीब परिवारों की महिलाएं कुपोषण की शिकार होती हैं। खाने की इस प्रथा के कारण घर में छोटे-मोटे मनमुटाव भी हुआ करते थे। अगर पुरुष खाने में देरी करते थे, तो महिलाओं को भी खाने के लिए इंतजार करना होता था, चाहे वे कितनी भी भूखी क्यों न हो।

सकारात्मक बदलाव आया : साथ खाने की प्रथा से न सिर्फ़ पोषण का स्तर बढ़ता है, बल्कि कई अन्य सकारात्मक बदलाव भी देखे गए हैं। हालांकि बनारस में बहुत से लोग अपनी बहुओं को अब सिर ढंकने के लिए भी नहीं कहते।